Lekhika Ranchi

Add To collaction

उपन्यास-गोदान-मुंशी प्रेमचंद


गोदान

जंगी ने उत्सुकता से पूछा -- काम क्या करना पड़ेगा?
'काम चाहे चौकीदारी करो, चाहे तगादे पर जाओ। तगादे का काम सबसे अच्छा। असामी से गठ गये। आकर मालिक से कह दिया, घर पर है नहीं, चाहो तो रुपए आठ आने रोज़ बना सकते हो। '
'रहने की जगह भी मिलती है? '
'जगह की कौन कमी। पूरा महल पड़ा है। पानी का नल, बिजली। किसी बात की कमी नहीं है। कामता हैं कि कहीं गये हैं? '
'दूध लेकर गये हैं। मुझे कोई बाज़ार नहीं जाने देता। कहते हैं, तुम तो गाँजा पी जाते हो। मैं अब बहुत कम पीता हूँ भैया, लेकिन दो पैसे रोज़ तो चाहिए ही। तुम कामता से कुछ न कहना। मैं तुम्हारे साथ चलूँगा। '
'हाँ-हाँ, बेखटके चलो। होली के बाद। '
'तो पक्की रही। '
दोनों आदमी बातें करते भोला के द्वार पर आ पहुँचे। भोला बैठे सुतली कात रहे थे। गोबर ने लपक कर उनके चरण छुए और इस वक़्त उसका गला सचमुच भर आया। बोला -- काका, मुझसे जो कुछ भूल-चूक हुई, उसे क्षमा करो।
भोला ने सुतली कातना बन्द कर दिया और पथरीले स्वर में बोला -- काम तो तुमने ऐसा ही किया था गोबर, कि तुम्हारा सिर काट लूँ तो भी पाप न लगे; लेकिन अपने द्वार पर आये हो, अब क्या कहूँ! जाओ, जैसा मेरे साथ किया उसकी सज़ा भगवान् देंगे। कब आये?
गोबर ने ख़ूब नमक-मिर्च लगाकर अपने भाग्योदय का वृत्तान्त कहा, और जंगी को अपने साथ ले जाने की अनुमति माँगी। भोला को जैसे बेमाँगे वरदान मिल गया। जंगी घर पर एक-न-एक उपद्रव करता रहता था। बाहर चला जायगा, तो चार पैसे पैदा तो करेगा। न किसी को कुछ दे, अपना बोझ तो उठा लेगा। गोबर ने कहा -- नहीं काका, भगवान् ने चाहा और इनसे रहते बना तो साल दो साल में आदमी हो जायँगे।
'हाँ, जब इनसे रहते बने। '
'सिर पर आ पड़ती है, तो आदमी आप सँभल जाता है। '
'तो कब तक जाने का विचार है? '
'होली करके चला जाऊँगा। यहाँ खेती-बारी का सिलसिला फिर जमा दूँ, तो निसचिन्त हो जाऊँ। '
'होरी से कहो, अब बैठ के राम-राम करें। '
'कहता तो हूँ, लेकिन जब उनसे बैठा जाय। '
'वहाँ किसी बैद से तो तुम्हारी जान-पहचान होगी। खाँसी बहुत दिक कर रही है। हो सके तो कोई दवाई भेज देना। '
'एक नामी बैद तो मेरे पड़ोस ही में रहते हैं। उनसे हाल कहके दवा बनवा कर भेज दूँगा। खाँसी रात को ज़ोर करती है कि दिन को? '
'नहीं बेटा, रात को। आँख नहीं लगती। नहीं वहाँ कोई डौल हो, तो मैं भी वहीं चलकर रहूँ। यहाँ तो कुछ परता नहीं पड़ता। '
'रोज़गार का जो मज़ा वहाँ है काका, यहाँ क्या होगा? यहाँ रुपए का दस सेर दूध भी कोई नहीं पूछता। हलवाइयों के गले लगाना पड़ता है। वहाँ पाँच-छः सेर के भाव से चाहो तो एक घड़ी में मनों दूध बेच लो। '
जंगी गोबर के लिए दूधिया शर्बत बनाने चला गया था। भोला ने एकान्त देखकर कहा -- और भैया! अब इस जंजाल से जी ऊब गया है। जंगी का हाल देखते ही हो। कामता दूध लेकर जाता है। सानी-पानी, खोलना-बाँधना, सब मुझे करना पड़ता है। अब तो यही जी चाहता है कि सुख से कहीं एक रोटी खाऊँ और पड़ा रहूँ। कहाँ तक हाय-हाय करूँ। रोज़ लड़ाई-झगड़ा। किस-किस के पाँव सहलाऊँ। खाँसी आती है, रात को उठा नहीं जाता; पर कोई एक लोटे पानी को भी नहीं पूछता। पगहिया टूट गयी है, मुदा किसी को इसकी सुधि नहीं है। जब मैं बनाऊँगा तभी बनेगी।
गोबर ने आत्मीयता के साथ कहा -- तुम चलो लखनऊ काका। पाँच सेर का दूध बेचो, नगद। कितने ही बड़े-बड़े अमीरों से मेरी जान-पहचान है। मन-भर दूध की निकासी का ज़िम्मा मैं लेता हूँ। मेरी चाय की दूकान भी है। दस सेर दूध तो मैं ही नित लेता हूँ। तुम्हें किसी तरह का कष्ट न होगा।
जंगी दूधिया शर्बत ले आया। गोबर ने एक गिलास शर्बत पीकर कहा -- तुम तो ख़ाली साँझ सबेरे चाय की दूकान पर बैठ जाओ काका, तो एक रुपए कहीं नहीं गया है। भोला ने एक मिनट के बाद संकोच भरे भाव से कहा -- क्रोध में बेटा, आदमी अन्धा हो जाता है। मैं तुम्हारी गोईं खोल लाया था। उसे लेते जाना। यहाँ कौन खेती-बारी होती है।
'मैंने तो एक नयी गोईं ठीक कर ली है काका! '
'नहीं-नहीं, नयी गोईं लेकर क्या करोगे? इसे लेते जाओ। '
'तो मैं तुम्हारे रुपए भिजवा दूँगा। '
'रुपए कहीं बाहर थोड़े ही हैं बेटा, घर में ही तो हैं। बिरादरी का ढकोसला है, नहीं तुममें और हममें कौन भेद है? सच पूछो तो मुझे ख़ुश होना चाहिए था कि झुनिया भले घर में है, आराम से है। और मैं उसके ख़ून का प्यासा बन गया था। '
सन्ध्या समय गोबर यहाँ से चला, तो गोईं उसके साथ थी और दही की दो हाँड़ियाँ लिये जंगी पीछे-पीछे आ रहा था।

   1
0 Comments